Thursday 29 December 2011

बदलते दौर मे खत्म होते रिश्ते

भारतीय समाज में विवाहित जीवन और वैवाहिक संबंधों का महत्व हमेशा से ही सर्वोपरि रहा है. विदेशों की तुलना में भारतीय लोगों के जीवन में विवाह एक मजबूत और भावना प्रधान संबंध माना जाता है. ऐसा संबंध जिसे किसी भी हाल में तोड़ा या समाप्त नहीं किया जा सकता. लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं रहे. आज वैवाहिक संबंधों की नियति स्थिर नहीं कही जा सकती. जब से पति-पत्नी के अलगाव को तलाक नामक कानूनी संस्था का संरक्षण प्राप्त हुआ है तब से वैवाहिक जीवन और इसके महत्व पर प्रश्नचिंह लगने शुरू हो गए हैं. पहले जहां विवाह के पश्चात हर हाल में लोग एक-दूसरे के साथ रहते थे वहीं आज जरा सी अनबन के कारण वे तलाक लेकर एक-दूसरे से अलग होने का निर्णय ले लेते हैं. समय के साथ-साथ तलाक की इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बढ़त देखी जा सकती है. पहले तलाक केवल उच्चवर्ग में ही स्वीकार्य था. लेकिन आज मध्यम वर्गीय लोगों
के वैवाहिक संबंध तलाक की बलि चढ़ते जा रहे हैं.


एक नए अध्ययन पर गौर करें तो बीते कुछ वर्षों में तलाक की यह बढ़ती दर किसी को भी परेशान कर सकती है. विशेषकर पच्चीस वर्ष में तलाक लेने वाले जोड़ों के आंकड़े में वर्ष 2008 के मुकाबले 2 प्रतिशत की उल्लेखनीय बढ़त देखी गई है. पहले यह आंकड़ा 6 प्रतिशत था अब यह बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है.


एक मैट्रिमोनियल साइट द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार यह देखा गया है कि दूसरी शादी के लिए अपनी प्रोफाइल बनाने वाले लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है. विशेषकर महिलाओं में यह दूसरे विवाह के प्रति रुझान ज्यादा देखा गया है. वर्ष 2008 में उनकी संख्या 3 प्रतिशत थी जो बढ़कर अब पांच प्रतिशत हो गई है. कई समाजशास्त्रियों का कहना है कि शादी टूटने की संख्या बढ़ने का सबसे बड़ा कारण आपसी सहयोग और समझौता करने में आ रही कमी है.
आज महिला और पुरुष दोनों ही आत्मनिर्भर हो गए हैं.आर्थिक रूप से यह बढ़ती स्वतंत्रता अब उनके आपसी संबंधों में बाधा उत्पन्न करने लगी है. पहले महिला और पुरुष निजी और महत्वपूर्ण जरूरतों के लिए एक-दूसरे से जुड़े रहते थे. वहीं आज वे दोनों स्वावलंबी बन गए हैं. दूसरी ओर भौतिक सुखों की बढ़ती चाहत ने भी आपसी संबंधों की नींव को कमजोर कर दी है. विवाह से पहले परिवार वाले अपनी तरफ से पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही विवाह संबंधी कोई भी निर्णय लेते हैं लेकिन फिर भी पति-पत्नी आपस में निर्वाह कर पाएंगे या नहीं यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती. अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब विवाह जैसी धार्मिक और सामाजिक संस्था अपना अस्तित्व पूरी तरह गंवा देगी.

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